‘विदेशी’ साड़ियों वाला भारतीय गांव, आबादी 500 पर 30,000 मजदूरों का ठिकाना, इसलिए फेमस
भारतीय परिधानों में साड़ी का एक अहम स्थान है. भारत में कई तरह की साड़ियां बनाई जाती हैं और इन्हें दुनिया के कई देशों में बेचा जाता है. लेकिन आज हम आपको एक ऐसे गांव के बारे में बताएंगे, जिसकी जनसंख्या मात्र 500 है, लेकिन यहां 30,000 से ज्यादा लोग काम करते हैं. इस गांव में 300 से ज्यादा घाट हैं, जहां साड़ियों की घुलाई होती है.
भारत में पारंपरिक परिधान का नाम सुनते ही सबसे पहले साड़ी की याद आती है. आज के मॉडर्न जमाने में भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है, और हर दिन इसमें नए तरह की डिजाइन और अलग-अलग कलर देखने को मिलते रहते हैं. साड़ी के लिए भारत में कई जगहें हैं जो बेहद फेमस हैं. इसमें बनारस की बनारसी साड़ी से लेकर मुंबई की नल्ली सिल्क साड़ी तक, जयपुर की रेशम की साड़ी से लेकर कोलकाता की साड़ियों तक, सबकी अपनी खासियत है.
लेकिन इन फेमस जगहों के अलावा एक गांव ऐसा भी है, जहां की साड़ी न केवल भारत में बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में भी फेमस है. इससे भी बड़ी बात यह है कि इस गांव की जनसंख्या बेहद कम है. यहां सिर्फ 500 लोग रहते हैं, लेकिन इस गांव में 30,000 से ज्यादा लोग काम करते हैं. तो चलिए, आपको इस गांव के बारे में बताते हैं.
विदेशों में होता है एक्सपोर्ट
गुजरात के राजकोट जिले के जेतपुर में बनने वाली साड़ियां कई देशों में एक्सपोर्ट होती हैं. लेकिन जेतपुर में तैयार होने वाली ये साड़ियां धोने के लिए जेतपुर से 12 किलोमीटर दूर भाट गांव भेजी जाती हैं. इस गांव में 300 से ज्यादा घाट हैं. एक घाट लगभग 3-5 बीघा में फैला है, और एक लाइन में लगभग 9 कुंड होते हैं, जिनमें मशीन और हाथों से साड़ियों की धुलाई होती है. इस गांव की जनसंख्या मात्र 500 है, लेकिन जेतपुर और आसपास के इलाकों से करीब 30,000 लोग यहां काम करने आते हैं.
पानी की कमी के बावजूद फल-फूल रही इंडस्ट्री
जेतपुर की पूरी इकोनॉमी कपड़ा प्रिंटिंग पर आधारित है. हालांकि यह शहर पानी की कमी से जूझ रहा है, इसके बावजूद यहां इतने लोग काम कर रहे हैं. पहले यहां भदर नदी के किनारे प्रिंटिंग और डाइंग का काम होता था, लेकिन अब नदी सूख चुकी है. इसके बावजूद, जेतपुर के उद्योगपतियों ने अपने व्यवसाय को बचाए रखने के लिए नए तरीके ढूंढ लिए हैं. अब 90 फीसदी डाइंग, स्कॉरिंग और ब्लीचिंग का काम महाराष्ट्र के डोम्बिवली में किया जाता है, और फिर कपड़े को जेतपुर लाया जाता है, जहां प्रिंटिंग और अन्य प्रक्रियाएं की जाती हैं.
सैकड़ों यूनिट करती हैं काम
- प्रोसेसिंग यूनिट्स की संख्या: 872
- निवेश: 2000 मिलियन रुपये (ब्लीचिंग, डाईंग, प्रिंटिंग)
- ऑटोमेटिक और सेमी-ऑटोमेटिक फ्लैट बेड प्रिंटिंग मशीनों वाली यूनिट्स (स्टेंटर्स के साथ या बिना): 50 (872 यूनिट्स में से)
- केवल स्टेंटर्स वाली यूनिट्स: 10 (उपरोक्त में से)
- कोल्ड प्रिंटिंग टेबल: 36,000
- हॉट प्रिंटिंग टेबल: 6,000
- निर्यात (अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष 60:40): 10,000 मिलियन रुपये
- घरेलू बाजार के लिए सामान: 4,000 मिलियन रुपये
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प्रोडक्ट प्रोफाइल
i) प्रिंटेड सूती साड़ियां
90s x 100s, 100s x 110s, 70s x 90s
चौड़ाई: 42” से 44”
ii) खांगा (एक्सपोर्ट क्वालिटी)
30s x 30s, 32s x 32s, 60s x 60s
(अफ्रीकी प्रिंटेड चुन्नियां)
चौड़ाई: 44” से 52”
iii) किटांगा (एक्सपोर्ट क्वालिटी)
30s x 30s, 32s x 32s, 60s x 60s
(अफ्रीकी प्रिंटेड ड्रेस मटेरियल)
चौड़ाई: 44” से 52”
70 फीसदी होता है एक्सपोर्ट
यहां लगभग 70 फीसदी प्रोडक्ट एक्सपोर्ट किए जाते हैं, जबकि बाकी साड़ियां कोलकाता और तमिलनाडु के बाजारों के लिए होती हैं. कुल उत्पादन क्षमता लगभग 13 लाख लीनियर मीटर प्रतिदिन है. ग्रे कपड़ा (100 फीसदी सूती) महाराष्ट्र के इचलकरंजी और मालेगांव, तथा तमिलनाडु के इरोड और सलेम से खरीदा जाता है. इसकी कीमत 12 से 20 रुपये प्रति मीटर होती है. प्रिंटेड साड़ियां 22 से 30 रुपये प्रति मीटर और खांगा तथा किटांगा 21 से 25 रुपये प्रति मीटर की दर से बेचे जाते हैं.