हैलो स्लोडाउन ! बदलनी है तस्वीर, चाहिए आउट ऑफ द बॉक्स आइडिया
सवाल उठता है कि जो इकोनॉमी, कोविड के बाद रिकवर होकर 8.2 फीसदी और 9.7 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, वह कैसे 6.4 फीसदी पर आ गई. गिरावट से साफ है कि सरकार का निवेश पर खर्च कम हुआ है और उसका असर रोजगार पर दिख रहा है. लोगों की न केवल इनकम घटी है बल्कि नए रोजगार भी आने कम हुए हैं.
जिस डर की आहट थी, वह अब हकीकत हो गई है. भारत सरकार ने भी मान लिया है इकोनॉमी की सेहत बहुत अच्छी नहीं है. और वह मौजूदा वित्त वर्ष में चार साल के निचले स्तर की ग्रोथ रेट से बढ़ेगी. इसका सीधा मतलब है दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही भारतीय इकोनॉमी कोविड-19 के दौर के बाद सबसे बुरे स्तर पर है और वह इस बार 7 फीसदी का लुभावना आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी. तो सवाल उठता है कि जो इकोनॉमी, कोविड के बाद रिकवर होकर 8.2 फीसदी और 9.7 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, वह कैसे 6.4 फीसदी पर आ गई.
तो पहले कुछ इंडीकेटर को देखते हैं, जो बताते हैं कि कहां गड़बड़ हो रही है. सबसे पहले बात GDP में करीब 60 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले निजी खपत (PFCE) की जो पिछले चार साल से 5 फीसदी सालाना ग्रोथ रेट (CAGR) से आगे नहीं बढ़ पा रही है. यानी लोगों के पास खर्च के लिए पैसा नहीं है. और यह गोल्ड लोन के बढ़ते डाटा से लेकर पर्सनल लोन के डाटा और साबुन, तेल, आटा जैसे एफएमसीजी उत्पादों की गिरती मांग से साफ पता चल रहा है.
दूसरा अहम आंकड़ा करीब 30 फीसदी हिस्सा रखने वाले फिक्सड कैपिटल फॉर्मेशन (GFCF) का है यानी जो सरकार निवेश कर रही है, उससे पूंजी कितनी पैदा हो रही है, वह ग्रोथ भी 9.0 फीसदी से गिरकर 6.4 फीसदी आ गई है. गिरावट से साफ है कि सरकार का निवेश पर खर्च कम हुआ है और उसका असर रोजगार पर दिख रहा है. CMIE के डाटा के अनुसार नवंबर में गिरावट के बावजूद बेरोजगारी दर 8 फीसदी पर बरकरार है. ऐसे में लोगों की न केवल इनकम घटी है बल्कि नए रोजगार भी आने कम हुए हैं. यही नहीं कंपनियों की कमाई पर भी असर दिखा है. अब अगर जीडीपी में 90 फीसदी हिस्सा रखने वाले दो प्रमुख इंडीकेटर का ऐसा हाल है तो इकोनॉमी में ग्रोथ कहां से आएगी.
क्या कहते हैं अर्थशास्त्री और सरकार
अब इंडीकेटर से निकलकर अर्थशास्त्री की बात करते हैं, क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डी.के.जीशी के अनुसार जीडीपी ग्रोथ रेट में गिरावट की प्रमुख वजह कंपनियों की इनकम में गिरावट, राहत पैकेज में कमी, कर्ज महंगा होना और लोन मिलने में मुश्किल आना रहा है. इसके अलावा सरकार के पूंजीगत व्यय में गिरावट होना भी एक प्रमुख कारण है. इसके अलावा अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद प्राइवेट सेक्टर अब भी उम्मीद के अनुसार निवेश नहीं कर रहा है. जोशी के अनुसार शहरी इलाकों में रहने वाले वालों लोग खास तौर से ऊंची महंगाई की वजह से जूझ रहे हैं.
अब जरा सरकार का पक्ष भी सुनिए अग्रिम अनुमान आने से पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दूसरी तिमाही के निराशाजनक जीडीपी आंकड़ों पर कहा था कि गिरावट सिस्टमेटिक नहीं है. साथ ही उन्होंने कहा था कि चुनाव पर फोकस होने से सरकारी खर्च में भी कमी आई थी. उन्हें उम्मीद जताई थी कि तीसरी तिमाही की वृद्धि हालिया गिरावट की भरपाई करेगी. हालांकि अग्रिम अनुमान इन उम्मीदों को पूरा करते नहीं दिख रहे हैं.
इसी तरह उद्योग जगत और सरकार के बैठे कुछ मंत्री भी आरबीआई द्वारा सस्ते कर्ज का रवैया नहीं रखने पर सवाल उठाते रहे हैं. उनका मानना है कि आरबीआई द्वारा ब्याज दरें नहीं घटाने से ग्रोथ पर असर हुआ है.
मिडिल क्लास टैक्स बोझ और महंगाई से परेशान
जहां तक आरबीआई द्वारा कर्ज नहीं सस्ता करने की बात है तो पूर्व गवर्नर शक्तिकांत दास ने साफ तौर पर अपनी प्राथमिकता बता दी थी, उन्होंने कहा था कि रेग्युलेटर वही कर रहा है जो उसका मैनडेट है. असल में आरबीआई का सीधा मानना रहा है कि जब तक महंगाई दर उसके टारगेट के स्तर पर नहीं आएगी, तब तक कर्ज सस्ता करना जोखिम भरा हो सकता है. वहीं महंगाई की बात करें तो वह अक्तूबर में 6.2 फीसदी थी. जबकि नवंबर में वह थोड़ी गिरकर 5.48 फीसदी पर थी. हालांकि इसके बावजूद वह आरबीआई के सामान्य स्तर 4 फीसदी से ज्यादा थी.
और उससे भी ज्यादा खाद्य महंगाई शहरी इलाकों में खास तौर से परेशान कर रही है. जब भी ग्रोथ रेट गिरती है तो दुनिया की सभी सरकारें रेग्युलेटर की ओर सुई घुमाती है. और यह खींचतान चलती रहती है. लेकिन हकीकत यह है कि इकोनॉमी दबाव में है और मिडिल क्लास से लेकर आम आदमी को अब बजट में सरकार से बड़ी राहत की उम्मीद है
बजट पर नजर
इन परिस्थितियों में अब सबकी नजर एक फरवरी को पेश होने वाले बजट पर हैं. और इसमें सबसे ज्यादा मांग मिडिल क्लास को राहत देने पर है. उद्योग जगत के संगठन हो या फिर आरएसएस के सहायक संगठन सभी इनकम टैक्स पर राहत देने की मांग कर रहे हैं. इसके तहत कम से कम 10 लाख रुपये तक छूट मिलनी चाहिए. इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में मांग बढ़ने के लिए मनरेगा की मजदूरी रेट में बढ़ोतरी से लेकर, रोजगार के अवसर बढ़ाने पर जोर देने की मांग की गई है. सभी का मानना है कि टैक्स बोझ कम करने से लोगों की जेब में पैसा आएगा और वह खर्च करेंगे. जिससे इकोनॉमी का पहिया घूमेगा. परेशान करने वाली बात यह है कि सरकार द्वारा रोजगार के अवसर बढ़ाने और नए निवेश पर खास फोकस करने वाली कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स कम करने के बावजूद निवेश नहीं आ रहा है. इसे देखते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण टीम से आगामी बजट में कुछ आउट ऑफ द बॉक्स कदम उठाने की उम्मीद है. क्योंकि तभी हैलो स्लोडाउन…गुड बॉय स्लोडाउन होगा.