हर तबके के मनमोहन, मिडिल क्लास को बनाया ग्लोबल, गरीब हुआ सशक्त
डॉ मनमोहन सिंह भले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं. लेकिन एक साधारण में परिवार में जन्म लेने वाला बच्चा जिसका परिवार विभाजन का दौर देख चुका हो, वह बड़ा होकर न केवल असाधारण रुप से सफल होता है बल्कि उसने जीवन में कुछ ऐसे फैसले लिए, जिससे भारत के करोड़ों लोगों की तकदीर सदा के लिए बदल गई.
Manmohan Singh Contribution To India: नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी, मुकेश अंबानी, बीपीओ के जनक रमन रॉय, शिव नाडर न जाने कितने नाम उस शख्स के शुक्रगुजार होंगे, जिसके साहसिक फैसलों की वजह से आज वह दुनिया में छाए हुए हैं. इसी तरह आज के दौर में जी रही पीढ़ी को अगर बताया जाय McDonald, Nokia, LG, Samsung, पिज्जा हट,मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू जैसी कंपनियां और ICICI और HDFC जैसे प्राइवेट बैंक, जो आज उनके लिए आम बन गए हैं, वह शायद इस देश में आते ही नहीं अगर उस शख्स ने 33 साल पहले वह साहसिक फैसला नहीं लिया होता. जी हां पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने साल 1991 में डिफॉल्टर घोषित होने के कगार पहुंच चुकी भारतीय इकोनॉमी को दुनिया के लिए खोला था.
और उस फैसले का ही परिणाम था कि भारत में पहली बार एक ऐसे मिडिल क्लास का उदय हुआ जो यह सपने देख सकता था कि क्या हुआ कि उसके मां-बाप गरीब हैं लेकिन अगर उसमें काबिलियत है तो वह भी सफल हो सकता है, उसकी कामयाबी केवल विशेषाधिकार हासिल लोगों तक ही सीमित नहीं रह सकती है. और वह भी सपने देख कर उड़ सकता है. यही नहीं कमाई के लिए केवल हाई-फाई डिग्री ही नहीं सिंपल डिग्री भी उसे बीपीओ में नौकरी दिला एक अच्छी जिदंगी जीने का मौका दे सकती है.
बदहाल थी इकोनॉमी, अस्थिर था देश
लेकिन यह सब करना इतना आसान नहीं था, क्योंकि साल 1991 में जब वित्त मंत्री के रुप में मनमोहन सिंह ने कमान संभाली थी.तो देश में निराशा का माहौल था. राजनीतिक अस्थिरता थी, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी. बाबरी मस्जिद विवाद के चलते देश में दंगे भी हो रहे थे. और इन सब का असर इकोनॉमी पर चारों तरफ दिख रहा था. महंगाई 16.7 फीसदी के दर पर थी, युवा आरक्षण के मुद्धों से जूझ रहे थे, कारोबारी लाइसेंस राज की वजह से दुनिया से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे थे. आलम हो गया कि आज जिस स्थिति में पाकिस्तान है, वैसे ही भारत भी डिफॉल्टर बनने की कगार पर पहुंच गया था.
हालात इतने बदतर थे कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम बचा था.ये केवल 20 दिनों के तेल और फ़ूड बिल का भुगतान कर पाने की स्थिति में था. भारत के पास इतनी विदेशी मुद्रा भी नहीं बची थी कि वह दुनिया से कारोबार कर सके. और भारत का विदेशी कर्ज 72 अरब डॉलर पहुँच चुका था. और उसे अपने खर्चों के लिए सोना गिरवी रखना था.ब्राजील और मेक्सिको के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा क़र्ज़दार देश बन चुका था.
मिडिल क्लास की दुनिया ने देखी ताकत
उस समय, मनमोहन सिंह और उनको हर साहसिक फैसले लेने की हिम्मत देने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव की एक गलती, पूरे देश के लिए घातक हो सकती थी. ऐसे में वित्त मंत्री के रुप में मनमोहन सिंह ने भारतीय इकोनॉमी को दुनिया के लिए खोला और एक अवसर दिया कि वह भारत आएं और निवेश करें.आज जिस एफडीआई के बढ़ते निवेश पर कोई भी सरकार तालियां बटोरती है, वह उस समय गुलामी की दस्तक का प्रतीक माना जाता था.
राजनीतिक दल विदेशी निवेश का नाम आते ही यह डर पैदा कर देते थे, एक बार फिर भारत गुलाम हो जाएगा. लेकिन शायद एक गैर राजनीतिक व्यक्ति होने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के लिए सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र बना. और उनने विदेशी निवेश के दरवाजे खोल दिए. भारत में लाइसेंस राज को खत्म किया यानी बिजनेस शुरू करने के लिए हर बात पर सरकार की परमिशन नहीं चाहिए थी. इसी तरह देश में विदेशी कंपनियां भी आ सकती थी.इन्ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 51 फीसदी एफडीआई की परमिशन दी गई.
इसी तरह टेलीकॉम क्रांति की असल शुरूआत भी उसी दौर में हुई. जब 1994 में न्यू टेलिकॉम पॉलिसी आई. इसी पॉलिसी का परिणाम था कि टेलीफोन जो एक समय स्टेटस सिंबल था. एक अदद कनेक्शन के लिए कई बार सांसदों और विधायकों को चक्कर काटने पड़ते थे. वह मोबाइल कंपनियां अब फ्री में सिम बांट रही हैं. एयरटेल, एस्सार, वोडाफोन, रिलायंस जैसी कंपनियां उसी दौर की देन हैं, जो आज दुनिया में अपना डंका बजा रही हैं. दौर में प्राइवेट एयरलाइंस का भी रास्ता साफ हुआ और एयर इंडिया की मोनोपोली खत्म की गई. जेट एयरवेज, किंगफिशर एयरलाइंस, सहारा एयरलाइंस जैसी कंपनियां उसी फैसले की देन हैं.
उस दौर में शेयर बाजार से पूंजी जुटाना भी आसान हुआ. उसके पहले सरकार आईपीओ के लिए परमिशन देती थी. वह तय करती थी की आईपीओ का इश्यू साइज होगा. लेकिन 1992 से यह सब बदला. और कंपनियों के लिए पैसे जुटाना आसान हो गया. हालांकि उस समय शेयर बाजार का हर्षद मेहता घोटाला वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के लिए बड़ा धब्बा था. 4000 करोड़ का यह घोटाला उनके वित्त मंत्री पद संभालने के एक साल बाद सामने आया था. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार मनमोहन सिंह ने उसके बाद इस्तीफा सौंप दिया था. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव का इस्तीफा अस्वीकार करते हुए उन्हें अपने अधूरे काम (इकोनॉमी की हालत सुधारने )को पूरा करने के लिए कहा था.
मनमोहन सिंह एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनका मूल्यांकन के लिए केवल वित्त मंत्री के रुप में नहीं किया जा सकता. वह भारत के इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने इकोनॉमी से जुड़ी सभी अहम पद संभालने हैं, चाहे वित्त सचिव का पद हो या फिर योजना आयोग के उपाध्यक्ष या फिर आर्थिक सलाहकार, आरबीआई गवर्नर, वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री का पद, वह सभी भूमिका में रहे. आरबीआई गवर्नर के रूप में बैंकिंग रिफॉर्म कर शहरी कोऑपरेटिव बैंक को मजबूत करना, मौद्रिक नीति को लचीला बनाने से लेकर ग्रामीण और बिजनेस क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा कर्ज मिले इसके लिए भी अहम कदम उठाए थे.
गरीब हुआ सशक्त
मनमोहन सिंह की दूसरी पारी का जिक्र किए हुए बिना उनकी कहानी पूरी नहीं हो सकती है. 1991 से 1996 के बीच दुनिया ने मनमोहन सिंह को एक अर्थशास्त्री और वित्त मंत्री के रुप में देखा था. लेकिन करीब 8 साल नेपथ्य में रहने के बाद दुनिया ने मनमोहन सिंह को एक राजनेता के रूप में देखा और वह प्रधानमंत्री बने. यहां भी उन्होंने लगातार दो कार्यकाल पूरे किए. उनका वित्त मंत्री का कार्यकाल आर्थिक उदारीकरण वाला रहा. वहीं प्रधानमंत्री का कार्यकाल उस तबके पर ज्यादा फोकस था. जिसे आर्थिक उदारीकरण का बेहद कम फायदा पहुंचा था.
उनके कार्यकाल में ही आधार, मनरेगा, सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे अहम सामाजिक सशक्तीकरण वाले कदम उठाए. लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल में उनका राजनेता न होना उनके लिए नुकसानदेह भी साबित हुआ. क्योंकि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की जोड़ी के बीच में राहुल गांधी ज्यादा एक्टिव हो गए, ऐसे में तालमेल की कमी दिखी, गठबंधन में साथी दल और कांग्रेस के साथी भी हावी होते चले गए. जिसकी वजह मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी दो साल घोटालों और जनता से कनेक्शन कटने के भेंट चढ़ गए. और उसका परिणाम है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं.
लेकिन जिस शख्स का 60 साल का लोकसेवा का जीवन रहा हो, उसका केवल आखिरी 3 साल के दौर से मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है. शायद इसलिए मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास मेरा मूल्यांकन करते वक्त उदार रहेगा.