1991 का वो बजट… जिसने बदला भारत, जानें- मनमोहन सिंह ने क्यों कहा था बलिदान के लिए रहें तैयार

स्वतंत्र भारत में सबसे गंभीर आर्थिक चुनौतियों में से एक का सामना करते हुए मनमोहन सिंह ने 1991 में आर्थिक सुधार शुरू करने का फैसला किया. भारत के 22वें वित्त मंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के एक महीने से भी कम समय बाद मनमोहन सिंह ने जुलाई 1991 में एक केंद्रीय बजट पेश किया, जिसने देश की आर्थिक दिशा को बदल दिया.

साल 1991 के बजट ने बदल दी भारत की तस्वीर. Image Credit: Getty image

Manmohan Singh: पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का गुरुवार को 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया. मनमोहन सिंह उन विरले लोगों में से एक थे, जिन्होंने कड़ी मेहनत और योग्यता के बल पर महानता हासिल की और फिर पाया कि उन पर और भी महानता थोपी गई. वे प्रधानमंत्री बने, क्योंकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को 2004 के आम चुनावों के बाद बहुमत समूह के नेता के रूप में उस पद को संभालने के लिए किसी भरोसेमंद और योग्य व्यक्ति की आवश्यकता थी. लेकिन उससे पहले वो देश के वित्त मंत्री बने थे. साल 1991 में जब कांग्रेस केंद्र की सत्ता में लौटी और नेपथ्य से लौटकर पी वी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया.

आर्थिक पतन की कगार पर था भारत

1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तब भारत आर्थिक पतन की कगार पर था. विदेशी मुद्रा भंडार केवल कुछ हफ्तों के लिए जरूरी आयात को कवर करने भर बचा था. स्वतंत्र भारत में सबसे गंभीर आर्थिक चुनौतियों में से एक का सामना करते हुए, मनमोहन सिंह ने 1991 में आर्थिक सुधारों को शुरू करने का फैसला किया, जो उदारीकरण, निजीकरण और भारत की अर्थव्यवस्था को खोलने पर केंद्रित थे. अपने 1991-92 के बजट भाषण में, मनमोहन सिंह ने आने वाले वर्षों के लिए अर्थव्यवस्था की दिशा यह कहते हुए बदल दी कि आर्थिक प्रक्रियाओं का अधिक केंद्रीकरण और जरूरत से अधिक नौकरशाही काउंटरप्रोडक्टिव साबित हुई है. उस ऐतिहासिक बजट भाषण के कुछ अंश आप भी पढ़ लीजिए.

विदेशी मुद्रा संकट

मनमोहन सिंह ने अपने बजट भाषण में कहा- ‘दिसंबर 1990 से हम खाई के किनारे पर हैं और अप्रैल 1991 से तो और भी ज्यादा. विदेशी मुद्रा संकट ग्रोथ प्रक्रियाओं की स्थिरता और हमारे डेवलपमेंट प्रोग्राम के व्यवस्थित एग्जीक्यूशन के लिए एक गंभीर खतरा है. प्रतिकूल आंतरिक और बाहरी फैक्टर्स के चलते 1990 के मध्य से मूल्य स्तर पर मुद्रास्फीति (महंगाई दर) का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है. भारत के लोगों को डबल डिजिट की मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ रहा है, जिसका सबसे अधिक असर हमारे समाज के गरीब तबके पर पड़ रहा है. संक्षेप में, अर्थव्यवस्था में संकट तीव्र और गहरा दोनों है. हमने स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं किया है’.

उधार के पैसे या समय पर जीने की गुंजाइश खत्म

उन्होंने अपनी स्पीच में कहा कि यह समय गंवाने के लिए नहीं है. क्योंकि सरकार और अर्थव्यवस्था दोनों ही साल दर साल अपनी क्षमता से अधिक खर्च नहीं कर सकती है. उधार के पैसे या समय पर जीने के लिए अब कोई गुंजाइश भी नहीं बची है. लंबे समय से लंबित मैक्रोइकॉनोमिक समायोजन को और आगे टालने का मतलब होगा कि भुगतान संतुलन की स्थिति, जो अब बेहद मुश्किल है वो असहनीय हो जाएगी. मुद्रास्फीति, जो पहले से ही अधिक है, वो सहनशीलता की सीमा को लांघ जाएगी.

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बलिदान के लिए रहना होगा तैयार

सिंह ने संसद को बताया कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सुधार के लिए शुरुआती बिंदु और वास्तव में हमारी रणनीति का केंद्र बिंदु, चालू वित्त वर्ष के दौरान एक विश्वसनीय फिस्कल एडजस्टमेंट और व्यापक आर्थिक स्थिरीकरण होना चाहिए. इसके बाद निरंतर फिस्कल कंसोलिडेशन किया जाना चाहिए. इस प्रक्रिया को पूरा होने में अनिवार्य रूप से कम से कम तीन साल या उससे अधिक समय लगेगा. लेकिन बिना दर्द के कोई एडजस्टमेंट नहीं हो सकता. लोगों को हमारी आर्थिक स्वतंत्रता को बनाए रखने और हमारी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को बहाल करने के लिए आवश्यक बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

मनमोहन सिंह को भारत के आर्थिक सुधारों रचनाकार बताना लोगों के लिए आम बात है. मनमोहन सिंह ने देश में आर्थिक सुधार की नींव रखी, लेकिन उन्हें सिर्फ इससे ही नहीं पहचाना जाना चाहिए. मनमोहन सिंह को भारत को ग्लोबल पावर के रूप में उभरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले व्यक्ति के रूप में भी पहचाना जाना चाहिए.