Ratan Tata का शव न जलेगा, न दफनाया जाएगा, 3000 साल पुराने पारसी रिवाज से ऐसे होगा अंतिम संस्कार

रतन टाटा पारसी थे. पारसी धर्म के रीति रिवाजों के तहत शव को न तो जलाया जाता है और न दफनाया जाता है. पारसी अंतिम संस्कार को दोखमेनाशिनी कहा जाता है. ज्यादातर धर्मों में अंतिम संस्कार जलाकर या दफनाकर किया जाता है. लेकिन, पारसी रिवाज सबसे अलग हैं.

रतन टाटा Image Credit: TV9

मशहूर उद्योगपति रतन टाटा के अंतिम संस्कार को लेकर फिलहाल कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई है. हालांकि, वे एक पारसी थे. पारसी धर्म के रीति रिवाजों के मुताबिक किसी भी शव का जलाकर, दफनाकर या पानी में बहाकर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है. असल में पारसी धर्म में पृथ्वी, जल और अग्नि को पवित्र माना जाता है. इसी वजह से अंतिम संस्कार तीनों तरीकों से नहीं किया जाता. जब किसी पारसी समुदाय के व्यक्ति की मौत होती है, तो उसके शव को टावर ऑफ साइलेंस यानी दखमा ले जाया जाता है. वहां, 3000 साल पुरानी अंतिम संस्कार की प्रक्रिया दोखमेनाशिनी के तहत अंतिम संस्कार किया जाता है.

क्यों अलग है अंतिम संस्कार की प्रकिया-

अग्नि और प्रकृति को पूजने वाले पारसी हिंदुओं की तरह ही पर्यावरण को लेकर जागृत रहते हैं. यहां तक कि उनके धार्मिक रीति रिवाजों के हिसाब से शवों के अंतिम संस्कार में भी इसका ध्यान रखा जाता है. पारसी धर्म में माना जाता है कि मृत शरीर अपवित्र होता है. जबकि, पृथ्वी, जल और अग्नि पवित्र होते हैं. ऐसे में इन तत्वों के जरिये शवों का अंतिम संस्कार गलत है.

कैसे होता है अंतिम संस्कार

पारसी समुदाय के व्यक्ति की मौत के बाद शव को आबादी क्षेत्र से दूर बने दखमा यानी टावर ऑफ साइलेंस में ले जाया जाता है. कई जगह यह कोई छोटी पहाड़ी भी हो सकती है. टावर ऑफ साइलेंस में शव को ऊंचाई पर खुले आसमान के नीचे रखा जाता है. इसके बाद मृतक के लिए आखिरी प्रार्थना शुरू की जाती है. प्रार्थना के बाद शव को चील और गिद्ध जैसे पक्षियों के लिए छोड़ दिया जाता है.

हजारों वर्ष पुराना रिवाज

कभी मौजूदा ईरान यानी फारस को आबाद करने वाले इस समुदाय के लोग अब पूरी दुनिया में थोड़े से ही बचे हैं. 2021 में हुए एक सर्वे के मुताबिक दुनिया में पारसियों की तादाद 2 लाख से भी कम है. इस समुदाय को दुनियाभर में अंतिम संस्कार की अनोखी परंपरा के चलते मुश्किल का सामना करना पड़ता है.

कई लोग बदल रहे परंपरा

टावर ऑफ साइलेंस के लिए उचित जगह नहीं मिलने और चील व गिद्ध जैसे पक्षियों की कमी के चलते पिछले कुछ सालों में पारसी लोगों ने अपने अंतिम संस्कार के तरीके में बदलाव शुरू किया है. अब कई पारसी परिवार अपने परिजनों को हिंदुओं के श्मशान घाट या विद्युत शवदाह गृह में ले जाने लगे हैं.

नहीं बनाते मकबरे और स्मारक

पारसी समुदाय की मान्यता है कि जो लोग मर चुके हैं, उन्हें स्मारकों के जरिये याद नहीं किया जा सकता. बल्कि उन्हें याद करने के लिए जोरास्ट्रियन (पारसी) प्रार्थनाएं ही सही जरिया हैं. मृतक के परिवार के घर और अग्नि मंदिर में मृत्यु के 10वें दिन, एक महीने के बाद और फिर मृत्यु की प्रत्येक सालगिरह पर प्रार्थना की जाती है. मृतकों को याद करना पारसी प्रार्थनाओं का अनिवार्य हिस्सा होता है. पारसी धर्म की बहुत सी परंपराएं हिंदू परंपराओं से मिलती-जुलती होती हैं.