कौन है वह बंबइया, जो अफीम बेचकर बन गया चीन का सबसे अमीर और पावरफुल परिवार

Sassoon Family: चीन के इस अमीर परिवार को एक दिन शंघाई से भागना पड़ा, तब ये परिवार वापस बंबई लौटा. हालांकि ये फिर शंघाई गए लेकिन अब सब कुछ खत्म हो चुका था. जानें क्या है ससून परिवार की कहानी.

कौन है वह बंबइया, जो बन गया चीन का सबसे अमीर परिवार Image Credit: History/Universal Images Group via Getty Images

एक था चीन का सबसे अमीर और शक्तिशाली परिवार, जिसका बड़ा बिजनेस एंपायर था, विरासत थी लेकिन 100 साल चीन के बाजार में राज करने के बाद, इस परिवार का बिजनेस मिट्टी मिल गया. इस परिवार का ताल्लुक भारत से भी रहा. कहीं न कहीं भारत छोड़ने का फैसला भी इस परिवार के बिजनेस के पतन का कारण बना. चलिए जानते हैं इस बिजनेस टाइकून परिवार की कहनी जिनका सपना शायद भारत के बड़े व्यापारी बनने का था लेकिन इनकी किस्मत में चीन लिखा था.

ये कहानी ससून परिवार की है. जो इराक से आया, मुंबई में बसा, चीन में फला-फुला और बहामास में जाकर इसका अंत हो गया. तस्वीर में दिख रही महल जैसी बिल्डिंग कभी ससून हाउस के नाम से जानी जाती थी. यहीं रहता था ससून परिवार. लेकिन अब ये फेयरमोंट पीस होटल है जो चीन के शंघाई में हैं. ये खूबसूरत हुआंगपू नदी के किनारे है और एक ऐतिहासिक आर्ट डेको बिल्डिंग कहलाती है. इसके ऊपर दिख रहा हरा पिरामिड ही इसे अलग पहचान देता है. इसे आप एशिया की पहली इमारत कह सकते हैं जो इतनी बड़ी है.

सोर्स: @fairmontpeacehotel/instagram

यहीं इमारत चीनी इतिहास के एक दर्दनाक दौर के बारे में भी याद दिलाती है. अफीम युद्ध. पहला अफीम युद्ध 1839 से शुरू हुआ और 1945 के दूसरे विश्व युद्ध तक चला. इसी बीच 1929 में ससून हाउस का निर्माण हुआ. तब शंघाई भी ब्रिटेन की कॉलोनी थी और ससून परिवार चीन का सबसे अमीर और शक्तिशाली परिवारों में गिना जाता था.

ससून परिवार की शुरुआत

ससून परिवार, यहूदी समुदाय से ताल्लुक रखता था, यहूदी वो जिनकी आज के इजरायल में सबसे ज्यादा आबादी है, जिन्हें जर्मनी में हिटलर ने बहुत यातनाएं दी. ससून परिवार का मुखिया डेविड ससून था. ये इराक के बगदाद में रहते थे जो 1830 के आसापास बंबई (मुंबई) आ गए. मुंबई से ही ससून ने बिजनेस की शुरुआत की, भारत में इनका बिजनेस चल पड़ा लेकिन एक दशक बाद इन्होंने चीन का रुख किया.

डेविड ससून, क्रेडिट: David Henley/Pictures From History/Universal Images Group via Getty Images

दिल्ली विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास की एक्स प्रोफेसर और इंडियंस इन चाइना, 1800-1949 किताब की लेखिका माधवी थम्पी ने लिखा है कि ससून ने 1840 के दशक में चीन में अवसर तलाशने शुरू किए, वे अवसरों का फायदा उठाना जानते थे.”

1844 में, ब्रिटेन और किंग राजवंश के बीच पहला अफीम युद्ध छिड़ा इसी के बाद ससून परिवार ने चीन में अपना बिजनेस सेट-अप किया. डेविड ससून के दूसरे बेटे, एलियास डेविड ससून ने कैन्टन और फिर शंघाई में बिजनेस का अच्छा विस्तार किया.

अफीम का बिजनेस

ससून परिवार का मुख्य व्यापार अफीम का था. अफीम के बिजनेस से इनका काफी मुनाफा बन जाता था. 2001 के शंघाई स्टार में छपे आर्टिकल के अनुसार, “कुल अफीम का हर पांचवां हिस्सा ससून के जहाजों से ही चीन पहुंचता था.” ब्रिटेन साम्राज्य से ससून परिवार चीन को अफीम और ब्रिटिश कपड़े बेचता था और बदले में चीन से सिल्क, चाय और चांदी लेता था. इस दौरान ससून की कहानियां बंबई तक पहुंचने लगी और कई व्यापारिक घरानों ने भी ससून की तरह शंघाई का रुख करने लगे.

नया ससून परिवार

1864 में डेविड ससून की मौत हो गई, उनके बेटे एलियास डेविड ससून उर्फ ED ससून ने अलग होकर शंघाई में अपनी कंपनी ‘ED ससून एंड सन्स’ की स्थापना की. यह कंपनी खासतौर से यूरोपीय ग्रोहकों के लिए कपड़े लाती थी और अन्य व्यवसायों में भी निवेश करती थी, जैसे बीमा, शिपिंग, और चीनी सरकार को लोन देना.

सबसे बाई तरफ हैं एलियास डेविड ससून

19वीं सदी के अंत में जब अफीम के बिजनेस का महत्व कम होने लगा, तब ससून परिवार ने शंघाई में रियल एस्टेट में निवेश करना शुरू किया. थम्पी के अनुसार, “उनकी यह चाल सबसे सूझ-बूझ भरी थी.” धीरे-धीरे अफीम व्यापार से कमाई का हिस्सा घट गया और रियल एस्टेट उनके मुनाफे का मुख्य सोर्स बन गया.

ससून परिवार का बिजनेस चीन में तो बढ़ ही रहा था, साथ ही साथ भारत में भी वह अपने बिजनेस को बढ़ा रहे थे.

भारत छोड़ने का फैसला

आगे चलकर 1920 में ससून परिवार के बिजनेस की बागडोर ED के बेटे जैकब के भतीजे के हाथ में आई. नाम था विक्टर ससून. विक्टर के पिता की मौत के बाद 1924 में उन्हें ब्रिटेन साम्राज्य से काफी सम्मान मिला है उन्हें बॉम्बे के बैरोनेट का खिताब दिया गया. उनका ज्यादातर समय पूना (अब पुणे) और शंघाई के बीच गुजरता था. यहां तक कि ब्रिटिश भारत में 1920 के दशक में दो बार वे विधायक भी बने.

फिर जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने लगा तो विक्टर ससून को अपने भविष्य के बार में सोचना पड़ा क्योंकि वे ब्रिटेन के करीब थे. जुलाई 1931 में रॉयटर्स को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “भारत में विदेशियों के लिए भविष्य उज्ज्वल नहीं दिखता.” उन्होंने कहा कि उनके परिवार का भारत में व्यवसाय सिकुड़ रहा है और देश में उनका एकमात्र बड़ा बिजनेस कपास का था.

इसी दौरान विक्टर ने भारत छोड़ने और शंघाई को अपना केंद्र बनाने का फैसला लिया. उन्हें भारत के मुकाबले चीन में ज्यादा अवसर दिखने लगे इसलिए उन्होंने चीन का रुख किया.

ससून परिवार के पतन की कहानी

1937 में जापानी सेना के शंघाई पर आक्रमण कर दिया और यही से ससून परिवार की किस्मत बदलनी शुरू हो गई. शंघाई विदेशी और फ्रेंच क्षेत्रों में शरणार्थियों की जगह बन गया था. विक्टर ससून ने जापानियों के साथ समझौते किए, लेकिन 1941 में जापानी सेना ने शंघाई के पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और यहूदी शरणार्थियों को दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया.

ऐसे माहौल के बीच विक्टर को शंघाई से भागना पड़ा और वे फिर से 1941 में बंबई आ गए. जापान और अमेरिका के बीच जंग छिड़ी हुई थी.

दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ और विक्टर वापस शंघाई लौटे लेकिन इस बार बजनेस करने नहीं अपना सब कुछ बेचने. विक्टर ने अपना बिजनेस बेच डाला. इसके बाद उन्होंने चीन भी छोड़ दिया और हमेशा के लिए बहामास चले गए. बहामास द्वीप केरेबियन क्षेत्र में हैं जो अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य के बगल में है.

विक्टर ससून के बच्चे भी नहीं थे. उनका 1961 में 79 वर्ष की आयु में निधन हो गया. परिवार भले ही खत्म हो गया लेकिन ससून आज भी भारत और चीन के इतिहास में दर्ज है. महाराष्ट्र में ससून के नाम से आज भी अस्पताल हैं. ससून भारत में भी दान करते थे. आज वे अपनी विरासत पीछे छोड़ गए हैं.